Monday, December 12, 2011

संसद से बड़ी संसदीय समिति

संसदीय समिति की ओर से लोकपाल का लचर मसौदा तैयार किए जाने की आशंकाएं सच होती देख रहे हैं राजीव सचान

लोकपाल विधेयक के प्रस्तावित मसौदे को लेकर टीम अन्ना तो असंतुष्ट है ही, करीब-करीब सभी विपक्षी दल भी असहमति के स्वर उभार रहे हैं। हालांकि अभी लोकपाल समिति की अंतिम रपट आनी शेष है, लेकिन यह आशंका गहरा गई है कि यह रपट संसद की ओर से व्यक्त की गई भावना के अनुरूप नहीं होगी। राहुल गांधी को खुश करने और उन्हें दूरदर्शी सिद्ध करने के लिए लोकपाल को संवैधानिक दर्जा तो दिया जा सकता है, लेकिन न तो ग्रुप सी और डी के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में रखे जाने के आसार हैं और न ही प्रधानमंत्री को। सीबीआइ निदेशक की नियुक्ति के मामले में भी पुरानी व्यवस्था बने रहने के ही आसार अधिक हैं। कुल मिलाकर लोकपाल के मसौदे में काफी कुछ ऐसा हो सकता है जो संसद के दोनों सदनों की सामूहिक भावना के विपरीत हो। इसके चलते टीम अन्ना, उनके समर्थकों और विपक्षी दलों का नाखुश होना स्वाभाविक है। सच तो यह है कि किसी भी सरकार के लिए ऐसा कानून बनाना संभव नहीं जिससे कोई असंतुष्ट-असहमत न हो, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं हो सकता कि वह जानबूझकर ऐसा कोई कानून बनाए जो आम लोगों की उम्मीदों पर खरा न उतरे। सरकार अथवा सत्तारूढ़ दल यह भी उम्मीद नहीं कर सकता कि उसके द्वारा बनाए गए कानून को लेकर किसी भी स्तर पर असहमति का स्वर न उभरे। लोकतंत्र में ऐसी अपेक्षा का कहीं कोई औचित्य नहीं, लेकिन लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली संसदीय समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी ने दो टूक कहा कि सबको खुश रखना हमारी जिम्मेदारी नहीं और यदि कुछ लोग नाखुश हैं तो हम कुछ नहीं कर सकते। यह बयान इसलिए आघातकारी है, क्योंकि सिंघवी की अध्यक्षता वाली समिति पर संसद की भावना का सम्मान करने का दायित्व था। सिंघवी का तर्क अहंकार की पराकाष्ठा है। सिंघवी ऐसा व्यवहार कर रहे हैं मानों वह इस धरती पर शासन करने के लिए ही उतरे हैं। यह लोकतंत्र की भाषा नहीं हो सकती कि संसदीय समिति का अध्यक्ष यह कहे कि जनता को संतुष्ट करना हमारा दायित्व नहीं। ऐसा लगता है कि सिंघवी कांग्रेस के प्रवक्ता और संसदीय समिति के प्रमुख में कोई भेद नहीं कर पाते। अन्ना हजारे के अनशन के चलते जब संसद के दोनों सदनों ने उनकी मांगों पर सहमति प्रकट की थी तो इसे लोकतंत्र की जीत की व्याख्या दी गई थी। उल्लास के उस माहौल में प्रधानमंत्री ने कहा था कि लोकतंत्र में जनता की इच्छा ही सर्वोपरि है। अब ऐसे प्रकट किया जा रहा है जैसे संसदीय समिति की भावना सर्वोपरि है। संसद में अन्ना की मांगों पर बहस के पहले जब राहुल गांधी ने लोकपाल पर अपने विचार रखे थे तो विपक्षी दलों ने उसे राष्ट्र के नाम संबोधन की संज्ञा दी थी और आम जनता ने भी यह महसूस किया था कि उन्होंने गलत समय पर सही विचार रखे। राहुल ने अन्ना को खारिज करते हुए लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की पैरवी की थी। यह एक सही सुझाव था, लेकिन आम जनता को यही संदेश गया था कि इस सुझाव की आड़ में लोकपाल को लटकाया जा सकता है। पता नहीं लोकपाल व्यवस्था का निर्माण कब होगा, लेकिन यह विचित्र है कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा मिलने की संभावना तो बढ़ गई है, लेकिन इस आशंका के साथ कि उसके अनेक प्रावधान संसद की भावना के विपरीत हो सकते हैं। सत्तारूढ़ दल, सरकार और संसदीय समिति चाहे जैसा दावा क्यों न करे, संसद की भावना को दरकिनार किया जाना घोर अलोकतांत्रिक है। इस पर आश्चर्य नहीं कि अन्ना हजारे फिर से अनशन करने की धमकी दे रहे हैं। पता नहीं वह इस धमकी पर अमल करेंगे या नहीं और यदि करते हैं तो जनता उनका कितना साथ देती है, लेकिन यह शर्मनाक है कि इस सरकार ने अन्ना की हालत भिखारी जैसी कर दी है। यदि भारत में वास्तव में लोकतंत्र है और इस देश की केंद्रीय सत्ता चार दशक बाद ही सही, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ठोस व्यवस्था बनाने के लिए सचमुच प्रतिबद्ध है तो फिर अन्ना को बार-बार सड़क पर उतरने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ रहा है? यदि सरकार सही है और अन्ना गलत, जैसा कि सत्तारूढ़ दल की ओर से सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है तो फिर वह उनके अनशन-आंदोलन से इतना घबराती क्यों है? यदि सरकार अन्ना हजारे के रास्ते को गलत मानती है तो फिर वह उनके जैसे लोगों को हक्कुल सरीखा बनने को मजबूर कर रही है। हक्कुल भले ही पुलिस से भागा फिर रहा हो, लेकिन उसकी चर्चा अंतरराष्ट्रीय मीडिया में हो चुकी है। यह उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के उस सपेरे का नाम है जिसने रिश्वतखोरों से तंग आकर तहसील कार्यालय में तीन बोरे सांप छोड़ दिए थे। हक्कुल लंबे समय से सांपों को रखने के लिए जमीन मांग रहा था। प्रशासन का तर्क था कि इस काम के लिए जमीन देने का कोई प्रावधान नहीं है और तहसील कर्मी उसे यह समझाते थे कि वह जब तक कुछ खर्चा-पानी नहीं देगा तब तक उसे पट्टे पर जमीन नहीं मिल सकती। पता नही सच क्या है, लेकिन जब उसने जाना कि उसका काम नहीं बनने वाला तो उसने तहसील कार्यालय में सांप छोड़ दिए। अब तीन थानों की पुलिस उसे खोजने में लगी हुई है। उस पर सार्वजनिक स्थल पर वन्यजीवों को छोड़ कर दहशत फैलाने का आरोप मढ़ा गया है। हक्कुल पर लगाया गया आरोप सही हो सकता है, लेकिन उसकी चर्चा रिश्वतखोरों को सबक सिखाने वाले शख्स के रूप में हो रही है। यह ठीक वैसा ही है जैसे शरद पवार पर थप्पड़ रसीद करने वाले को तमाम लोग महंगाई के खिलाफ आवाज उठाने वाले शख्स के रूप में जान रहे हैं। क्या सरकार को यह समझ आ रहा है कि यदि असहमति, आपत्तियों और असंतोष पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो ऐसा ही होगा? (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
saabhar:-dainik jagran

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