Monday, December 12, 2011

दिशाहीनता की शिकार कांग्रेस

रिटेल कारोबार में एफडीआइ से पीछे हटने के फैसले को मनमोहन सिंह के अलग-थलग पड़ जाने का संकेत मान रहे हैं प्रदीप सिंह

केंद्र की मनमोहन सिंह की सरकार को आखिरकार पीछे हटना पड़ा। खुदरा क्षेत्र में 51 फीसदी तक सीधे विदेशी निवेश की नीति को सरकार ने आम राय बनने तक स्थगित रखने का फैसला किया है। तृणमूल कांग्रेस के खुले विरोध के बाद यह तय हो गया था कि सरकार के सामने पीछे हटने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। राजनीतिक परिस्थिति ऐसी है कि सरकार के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राय की अनदेखी करना कठिन था। बहुत से लोगों को उम्मीद थी कि अमेरिका के साथ परमाणु करार की ही तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे भी प्रतिष्ठा का सवाल बनाएंगे, पर पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम से साफ है कि मनमोहन सिंह की हैसियत सरकार और पार्टी में घटी है। पार्टी इस मुद्दे पर उनके साथ ज्यादा दूर तक जाने को तैयार नहीं है। मनमोहन सिंह जब इस मुद्दे पर पीछे नहीं हटने की घोषणा कर रहे थे तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी चुप्पी साधे हुए थीं। यह तो पता नहीं कि कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठकों में सोनिया गांधी का क्या रुख था, पर सार्वजनिक रूप से सोनिया ने सरकार के इस फैसले के समर्थन में कुछ नहीं बोला। खुदरा बाजार में सीधे विदेशी निवेश के फायदे-नुकसान पर बहस चल रही है और आगे भी चलती रहेगी, क्योंकि सरकार ने संसद में कहा है कि वह इस नीतिगत फैसले को राजनीतिक दलों और मुख्यमंत्रियों से राय मशविरा करेगी और आम राय बनने के बाद ही इसे लागू करेगी। पिछले नौ दिनों में सरकार और प्रधानमंत्री पहले से भी ज्यादा कमजोर और मजबूर नजर आए। इस मुद्दे पर सरकार और पार्टी में दूरी साफ नजर आई। सत्ता के आठवें साल में आते-आते मनमोहन सिंह शायद यह भूल गए कि वह कांग्रेस की सरकार के नहीं एक गठबंधन की सरकार के मुखिया हैं। परमाणु करार पर वामपंथी दलों को पटखनी देने के बाद शायद उन्होंने मान लिया था कि गठबंधन के साथियों की एक सीमा के बाद परवाह करने की जरूरत नहीं है। पार्टी उनकी और सरकार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए वैकल्पिक समर्थन का प्रबंध कर ही लेगी। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने के बाद से लगातार संकेत दे रही हैं कि केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी उन्हें हल्के में न ले। बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी जल संधि पर वह भारत सरकार की किरकिरी करा चुकी हैं। पेट्रोल के दाम बढ़ाने पर वह प्रधानमंत्री को बता चुकी हैं कि उनकी पार्टी की उपेक्षा उन्हें मजूर नहीं है। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर सहयोगियों, विपक्षी दलों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और अपनी ही पार्टी के एक वर्ग की राय जानते हुए भी प्रधानमंत्री ने ऐसा फैसला क्यों लिया? क्या पार्टी के रणनीतिकारों ने उन्हें आश्वस्त किया था कि सहयोगियों को मना लिया जाएगा। यदि नहीं तो क्या प्रधानमंत्री ने फैसला लेने से पहले सहयोगी दलों के नेताओं से बात की थी? विपक्ष की राय की परवाह न करना इस सरकार की आदत में शुमार हो गया है। उसकी एक बड़ी वजह यह है कि समय-समय पर सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की मदद से विपक्ष को मात देती रही है। उत्तर प्रदेश में कुछ ही महीने में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश की ये दोनों पार्टियां कांग्रेस के साथ खड़ी नजर आने को तैयार नहीं थीं, पर ये सारे तथ्य सरकार के रणनीतिकारों को पहले से मालूम थे। क्या यह सत्ता का अहंकार है? या फिर विपक्ष के इस आरोप पर भरोसा किया जाए कि मनमोहन सिंह अमेरिकी हितों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं? हमारे प्रधानमंत्री जब देश को बता रहे थे कि खुदरा क्षेत्र में सीधा विदेशी निवेश कितना फायदेमंद है,उसी समय अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने देशवासियों से कह रहे थे कि अपने इलाके के स्थानीय स्टोर से खरीददारी करके छोटे व्यावसायियों की मदद कीजिए। सपा और बसपा अलग-अलग समय पर सरकार की मदद करती रही हैं। इसमें भी समाजवादी पार्टी ने परमाणु करार पर अपनी राजनीतिक साख की कीमत पर कांग्रेस की मदद की और बदले में कांग्रेस ने सपा और उसके नेताओं को अपमानित किया। ऐसे समय जब राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी पर खुला हमला बोल रहे हैं, मुलायम सिंह यादव से यह उम्मीद करना कि वे कांग्रेस के बचाव में आएंगे, राजनीतिक नासमझी ही होगी। कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि विधानसभा चुनाव के बाद उसे समाजवादी पार्टी की जरूरत पड़ेगी। ज्यादा संभावना इस बात की भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मुलायम का हाथ थामने की जरूरत पड़ेगी। इसके बावजूद नौ दिन तक सरकार देश और दुनिया में अपनी फजीहत कराती रही। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग-2 के कामकाज में पुराने राजमहलों के षड्यंत्र जैसा माहौल नजर आता है। कौन किसके साथ है और किसके खिलाफ, यह बताना कठिन है। राहुल गांधी के करीबी यदा-कदा शक जाहिर करते हैं कि मनमोहन सिंह सरकार के फैसले राहुल गांधी की राजनीति से मेल नहीं खाते। यह भी कि मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का पहले जैसा समर्थन हासिल नहीं है। दिग्विजय सिंह की राजनीति सरकार और पार्टी, दोनों से अलग चलती है। माना जाता है कि वह जो कुछ करते और कहते हैं उसमें राहुल गांधी की सहमति होती है। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के मुद्दे पर सरकार ने कदम पीछे खींच लिए हैं, पर दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि पार्टी उत्तर प्रदेश के चुनाव में इसे मुद्दा बनाएगी। देश के बड़े कारपोरेट घरानों के मुखिया बयान देकर कहते हैं कि नीतियों के मोर्चे पर सरकार को लकवा मार गया है। सरकार और पार्टी की ओर से इसके विरोध में जोरदार तरीके से कुछ नहीं कहा जाता। संसद में गतिरोध के मुद्दे पर विपक्ष पर सबसे तीखा हमला कांग्रेस ने नहीं कारपोरेट जगत के लोगों ने किया। ऐसा लगता है कि सरकार की बीमारी ने पार्टी को भी लपेटे में ले लिया है। किसी को नहीं मालूम कि आंध्र प्रदेश में पार्टी किधर जा रही है और किस ओर जाना चाहती है। राच्य सरकार उधार की जिंदगी जी रही है। भविष्य की तो छोडि़ए वर्तमान के बारे में भी कांग्रेस की कोई सोच या रणनीति है, ऐसा लगता नहीं। सोनिया गांधी ने आजकल पहले से ज्यादा चुप्पी ओढ़ रखी है। पार्टी का भविष्य माने जाने वाले राहुल गांधी संसद न चलने से तो चिंतित होते हैं, पर संसद से ज्यादा समय नदारद ही रहते हैं। उनके उठाए मुद्दे एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के अहम नेता की बजाय एक एनजीओ के नेता के ज्यादा नजर आते हैं। कांग्रेस की यह दिशाहीनता पार्टी के लिए तो बुरी है ही, देश के लिए भी कोई अच्छी बात नहीं है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
saabhar:-dainik jagran

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