Tuesday, November 17, 2009

इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन के कुछ स्याह पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं कुलदीप नैयर

यदि केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारों के जोरदार प्रचार से इंदिरा गांधी पर लगा कुशासन का कलंक मिटना होता तो बहुत पहले ही ऐसा हो गया होता। उनके निधन के 25 वर्ष बाद उन्हीं सूत्रों द्वारा वही कसरत करने की आवश्यकता न पड़ती और न ही करोड़ों रुपये नाली में बहाने पड़ते। ये सारे प्रयास विफल रहे, क्योंकि न तो आत्मालोचना की गई और न ही खेद व्यक्त किया गया। इंदिरा गांधी का सबसे बड़ा पाप आपातकाल थोपना नहीं था, बल्कि राजनीति से नैतिकता का उन्मूलन करना था। उन्होंने सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच की महीन रेखा मिटा दी थी। यह विभाजक रेखा आज भी मिटी हुई है। स्वतंत्रता के बाद के पहले 19 वर्षो में जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्र को सत्ता की बलिवेदी पर चढ़ने से बचाए रखा था। उन्हें अपने पद का उपयोग राष्ट्र सेवा के लिए किया था। उन्होंने क्षुद्रता या प्रतिशोध की भावना को हावी नहीं होने दिया। किंतु इंदिरा गांधी तो अलग ही थीं। उन्होंने सत्ता को ही साध्य मान लेने में तनिक भी संकोच नहीं किया। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में अनियमितताओं के कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया तो उन्हें नैतिक आधार पर त्यागपत्र दे देना चाहिए था, किंतु विधि के शासन का पालन करने के बजाए वह खुद को ही कानून मान बैठी थीं।अपनी खाल बचाने के लिए उन्होंने आपातकाल थोप कर पूरी व्यवस्था ही उलट दी। अयोग्यता के अवरोधों को हटाने के लिए संसद उनके प्रभाव में थी। उन्होंने मंत्रिमंडल से सलाह लेना भी उचित नहीं समझा, जिसकी बैठक आपातकाल की उद्घोषणा की पुष्टि के लिए बुलाई गई थी तथा जिस पर राष्ट्रपति ने पूर्व रात्रि में ही हस्ताक्षर कर दिए थे। इंदिरा गांधी प्रेस से कभी भी खुश नहीं रहीं। आपातकाल थोपने के बाद उन्होंने सबसे पहले प्रेस का ही गला घोंटा। इस घटना के 34 वर्ष बाद भी मीडिया संतुलन कायम नहीं कर पाया है। अब उसने सत्तारूढ़ दल के दक्षिण की ओर खड़े होने का गुण विकसित कर लिया है। महात्मा गांधी ने राष्ट्र को निर्भीक होने की सीख दी थी। इंदिरा गांधी ने लोगों को भयाक्रांत करने का काम किया। प्रेस, न्यायपालिका और नौकरशाही, सभी भय के कारण झुक गए थे। उनके कृत्यों से सबसे पहले देश को धक्का लगा। 1969 में जब उन्होंने कांग्रेस को विभाजित किया तो लोगों ने उनके कारनामों के निहितार्थ को नहीं समझा। जब तक राष्ट्र उनकी नीतियों के प्रति सजग हुआ, तब तक कीटाणु राजनीति की काया में फैल चुका था। लोगों को स्वतंत्रता छिन गई थी। इंदिरा गांधी ने निष्पक्ष नौकरशाही को चोट पहुंचाई। वह दबाव से दरक गई थी। आत्मरक्षा की आकांक्षा सरकारी कर्मचारियों के कार्य-व्यवहार का एकमात्र प्रेरक सूत्र रह गया था। धमकी की आशंका से ही वे सहम जाते थे। वे बिना सवाल उठाए इंदिरा गांधी के आदेशों का पालन कर रहे थे। नैतिक आग्रहों और परंपरागत मूल्यों के लिए नौकरशाहों के पास कोई जगह नहीं थी। वे इंदिरा गांधी के अत्याचारों का उपकरण बन कर रह गए थे। आपातकाल की घोषणा से काफी पहले नौकरशाहों की वफादारी का आकलन करने के लिए इंदिरा गांधी ने एक शब्द गढ़ा था- प्रतिबद्धता। उनमें से कुछ ने कहा कि उनकी प्रतिबद्धता तो भारत के संविधान के प्रति है। ऐसे लोगों की पदोन्नति में या तो अपेक्षा हुई अथवा उन्हें महत्वहीन पदों पर भेज दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो प्रशासनिक अधिकारी निर्भीकता से फाइलों पर टिप्पणियां लिखते थे, वे हताशा से भर गए। नौकरशाहों की रगों में आज भी इंदिरा गांधी द्वारा भरा हुआ जहर दौड़ रहा है। वे अपनी वफादारी नए शासकों के सत्तासीन होने के साथ-साथ बदल लेते हैं। न्यायपालिका भी प्रतिबद्धता के दबाव को महसूस करती है। इंदिरा गांधी ने अपने आदमी को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की वरिष्ठता को लांघ दिया था। वे जज ही उस समय उनके तारणहार बने जब आपातकाल की संपुष्टि का केस न्यायालय के समक्ष आया। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने 11-1 के बहुमत से आपातकाल के पक्ष में फैसला दिया था। जिस एकमात्र न्यायाधीश ने इसके विरोध में मत दिया था, वह वरिष्ठतम न्यायाधीश थे, जिन्हें उनकी बारी आने पर भी मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया था। इंदिरा गांधी ने अपने 18 वर्ष के शासनकाल में सबसे अधिक क्षति उन संस्थानों को पहुंचाई, जिन्हें उनके पिता ने स्थापित और संरक्षित किया था। दल के विभाजन के फलस्वरूप जब लोकसभा में वह अपना बहुमत गंवा बैठी थीं, तब भी उन्होंने संसद में जोड़-तोड़ की। उन्होंने कांगे्रस और उसके वैचारिक अधिष्ठान को इतना कमजोर कर दिया कि जनता पार्टी केंद्र में सत्तासीन हो गई। एक समय था, जब यह असंभव माना जाता था। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में इंदिरा गांधी दूसरे की बात सुनती थीं और अंतिम व्यक्ति तक से संवाद स्थापित करती थीं। वह धर्म और क्षेत्र के मामले में पूरी तरह सेक्युलर थीं। बाद में उनके ये गुण विभिन्न गठबंधनों और जोड़-तोड़ में नजर आए। उन्होंने गरीबी हटाओ नारा दिया था। यह नारा कारगर रहा था। उन्होंने बैंकों और बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण जैसे कदम उठाए, जिससे उन्हें लोकप्रियता मिली। किंतु उन कदमों से आम आदमी को राहत नहीं मिल पाई। किसी हद तक कुछ नए पहलुओं ने भी उनकी दृष्टि और सोच को संकुचित किया। उनके पुत्र संजय गांधी संविधानेत्तर अधिसत्ता बन गए थे। उन्होंने भटके और दिशाहीन युवकों के लिए द्वार खोल दिए थे। उन्होंने जो ढांचा बनाया, वह आज भी शासन में नजर आता है। इंदिरा गांधी ने अपना विरोध करने वालों को तोड़ने के लिए हरसंभव उपाय किए। मुझे इस पर आश्चर्य होगा यदि इतिहास के फुटनोट में भी उनका उल्लेख हो पाएगा। यदि उल्लेख होगा तो शायद आपरेशन ब्लू स्टार के कारण, जिसकी इंदिरा गांधी को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन के कुछ स्याह पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं कुलदीप नैयर
साभार:-दैनिक जागरण

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