Wednesday, November 25, 2009

मन और बुद्धि

मन और बुद्धि वास्तव में जीवन में हर पल हर बात में संकल्प-विकल्प का भ्रमजाल फैला हुआ है। ऊपर से हमारी रचना जिसमें कभी मन बुद्धि पर हावी होता है तो कभी बुद्धि मन पर। संसार में रहते हुए हमें स्वयं एक दृष्टिकोण विकसित करना होगा कि निर्णय हमेशा अनुचित-उचित का ध्यान रखते हुए विवेकपूर्ण हो। हम स्वयं लापरवाही हैं या यूं कहें कि हमारी स्वयं की सजगता में कमी है। जिस कारण हम सही फैसले पर नहीं पहुंचते और अपनी मनमानी से गलत कदम उठा लेते हैं। जब बुद्धि की नहीं सुनते तब सिर्फ पछतावे के साथ हाथ मलते रह जाते हैं। जीवन में बुद्धि की अहमियत रहती है तो मन की मनमानी पर उसका नियंत्रण रहता है। हमारे शरीर के पीछे मन है और मन से सूक्ष्म बुद्धि है, बुद्धि से सूक्ष्म जीव है, जीव से सूक्ष्म अहंकार है। जब अहंकार मिटता है तो मन स्वत: बुद्धि में स्थिर हो जाता है। गीता के दूसरे अध्याय में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- बुद्धियुक्तो जहातीत उभे सुकृत दुष्कृते- बुद्धि मन को अलग-अलग विषयों में ले जाती है जिसके कारण मन उलझा रहता है। किंतु बुद्धि के स्थिर होते ही वह निश्चयात्मक हो जाता है, तब उसके परिणाम सुखद, विवेक से परिपूर्ण होते हैं निर्णय लेने में। मन जब क्रियाशील होता है तो संकल्प में भी विकल्प खोजता रहता है। वह खुद नहीं जानता कि उसे क्या करना है। किन्तु बुद्धि जब क्रियाशील है तो वह जीवन की अहमियत को समझती है, कैसे आगे बढ़ना और लक्ष्य को सिद्ध करना है। मन राग से भरा होता है तो सब अच्छा प्रतीत होता है। वहीं द्वेष के आते ही सारे गुण अवगुण में बदल जाते हैं। व्यक्ति विशेष तो रागी-द्वेषी हो ही नहीं सकता, क्योंकि जो आपके लिए बुरा है, वह किसी और के लिए प्रिय हो सकता है। किसी ने कहा भी है- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। जब हम मन के साथ चलते हैं तो हमारे अंदर विकल्प रहते हैं, जब हम बुद्धि के साथ होते हैं तो निश्चय के साथ आगे बढ़ते हैं। अत: मनमानी बनने के बजाय क्यों न बुद्धिमान बनें, विवेक, विचार, प्रसन्नता और आनंद एवं बुद्धि से सम्पन्न बनें, अशंाति के सारे स्त्रोतों को ही समाप्त कर दें। तो क्यों न मनरूपी ताले की चाबी अपने स्वयं के हाथ में रखें और जिधर चाहें उधर घुमाएं, तो फिर शांति ही शांति मिलेगी।
साभार :- दैनिक जागरण

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