भोपाल गैस त्रासदी से संबंधित बहस में सुशासन का बुनियादी मुद्दा न उठने पर निराशा जता रहे हैं के. सुब्रहमण्यम
यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को 8 दिसंबर 1984 को भारत छोड़कर भाग जाने का मौका देने के लिए कौन जिम्मेदार था, यह सवाल भोपाल गैस त्रासदी के मामले में अदालती फैसला आने के बाद देश में चल रही बहस का केंद्र बिंदु है। लगभग 25000 लोगों की मौत का कारण बनने वाली भोपाल गैस दुर्घटना में लापरवाही का परिचय देने के कारण यूनियन कार्बाइड से जुड़े आठ लोगों को दो-दो साल कैद की मामूली सजा सुनाई गई है। इस फैसले के बाद से ही लोगों में नाराजगी व्याप्त है। मंत्रियों का एक समूह इस सवाल पर माथापच्ची कर रहा है कि अब क्या किया जा सकता है-खासकर मुआवजे और पुनर्वास को लेकर? भोपाल गैस कांड के संदर्भ में कुछ तथ्य ऐसे हैं जिनसे इनकार नहीं किया जा सकता। यूनियन कार्बाइड भोपाल में एक भीड़भाड़ वाले स्थान में अत्यधिक खतरनाक जहरीली सामग्री से संबंधित एक केमिकल प्लांट का संचालन कर रही थी। यह मानने के भी पर्याप्त कारण हैं कि सुरक्षा संबंधी मानक एकदम चाक-चौबंद नहीं थे। त्रासदी के कुछ माह पहले के समय में गैस लीक से संबंधित छोटे-मोटे हादसे हुए। खतरे के संबंध में कुछ लेख भी मीडिया में प्रकाशित हुए। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने प्लांट का दौरा किया और विधानसभा को सूचित किया कि प्लांट सुरक्षित है। इसके बावजूद जिस तरह इतना बड़ा हादसा हुआ उससे यूनियन कार्बाइड और उसकी सहयोगी भारतीय कंपनी की लापरवाही एकदम स्पष्ट हो जाती है। इस मामले में भारत सरकार जितने मुआवजे पर सहमति हुई वह हादसे की भयावहता को देखते हुए नाममात्र का ही कहा जा सकता है। इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता कि दोषियों को दो-दो वर्ष के कारावास की जो सजा सुनाई गई वह न्याय के तंत्र का उपहास ही है। यह विचित्र है कि भोपाल त्रासदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा। वारेन एंडरसन, यूनियन कार्बाइड और भारतीय प्रबंधन की जवाबदेही तथा न्यायपालिका के रवैये पर सही ध्यान दिया जा रहा है, जिसने लापरवाही के आरोप घटा दिए, लेकिन इस त्रासदी का सबसे बड़ा गुनहगार तो अच्छे, प्रभावशाली और परवाह करने वाले शासन का अभाव है। दुर्भाग्य से इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। जिन मुद्दों पर बहस चल रही है वे तो सुशासन के अभाव के मुख्य मुद्दे के छोटे-छोटे पहलू ही हैं। सबसे पहले तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि खतरनाक रसायनों का काम करने वाली फैक्ट्री को किसने इतने भीड़-भाड़ वाले इलाके में काम करने की अनुमति दी? क्या वहां बस्ती पहले से कायम थी या फिर बाद में धीरे-धीरे लोग आकर बसने लगे? फैक्ट्री के निरीक्षण और सुरक्षा से संबंधित रपटों का क्या हुआ? जब मीडिया में फैक्ट्री को लेकर खतरे की खबरें प्रकाशित हो रही हैं तब किस पर कार्रवाई की जिम्मेदारी थी? क्या वे सभी लोग इतने बड़े हादसे के जिम्मेदार नहीं हैं? सरकारी तंत्र में जिन लोगों ने अपने दायित्वों की अनदेखी की उनके खिलाफ नरसंहार का मुकदमा क्यों नहीं चलना चाहिए? हमारे कानून में ऐसे प्रावधान हैं जिनके जरिए उन गतिविधियों को रोका जा सकता है जिनसे लोगों की जान को खतरा हो। उन प्रावधानों का इस्तेमाल अधिकारियों ने क्यों नहीं किया? सुप्रीम कोर्ट ने 14 वर्ष पहले आरोपों को हल्का बना दिया था। यह साफ था कि ट्रायल कोर्ट अधिकतम दो साल की कैद की सजा ही सुना सकती है। फिर क्यों सत्ता में बैठे लोगों द्वारा भोपाल गैस के अदालती फैसले पर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है। यह क्यों न मान लिया जाए जो ऐसा कर रहे हैं वे वास्तव में नाटक कर रहे हैं? मुआवजे की जिस राशि पर अंतत: सहमत हुआ गया था वह 15 वर्ष बाद भी अभी तक पूरी तरह वितरित नहीं की जा सकी है। जब भोपाल गैस कांड में लापरवाही के लिए शासन-प्रशासन में बैठे लोग भी जिम्मेदार थे तो यह भारत सरकार की भी जिम्मेदारी थी कि प्रभावित लोगों को मुआवजे का ऐलान किया जाता, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। कहा जा रहा है कि लोग अभी भी विषाक्त माहौल में जी रहे हैं और दूषित जल पीने के लिए विवश हैं। इस समस्या के निदान की जिम्मेदारी तो राज्य सरकार की है। मध्य प्रदेश में एक के बाद एक राज्य सरकारें पिछले 25 वर्र्षो में अपनी इस जिम्मेदारी को क्यों पूरा नहीं कर सकीं? पिछले वर्ष किसानों की कर्ज माफी के लिए संप्रग सरकार ने 70 हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिए। नि:संदेह यह एक सरहानीय कदम था, लेकिन इसका एक छोटा सा हिस्सा भी भोपाल गैस पीडि़तों के लिए क्यों नहीं खर्च किया गया? यह निराशाजनक है कि इस तरह के सवाल भोपाल गैस कांड पर चल रही बहस में क्यों नहीं उठते हैं? सुशासन से संबंधित मुद्दों पर बहस शुरू करने के बजाय राजनीतिक दल और एक हद तक मीडिया भी इस या उस पर उंगली उठाने में लगा हुआ है। यह विचित्र है कि भारत सरकार की असफलता पर से ध्यान बड़ी सावधानी से हटाकर वारेन एंडरसन पर केंद्रित कर दिया गया है। लोकतंत्र का एक मूलभूत गुण जवाबदेही है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र को इतना हल्का बना दिया गया है कि राजनीतिज्ञ अपनी शक्तियां तो बढ़ाते जा रहे हैं, लेकिन वे थोड़ी-बहुत जवाबदेही के लिए भी तैयार नहीं। भोपाल गैस त्रासदी इसका ताजा उदाहरण है। जवाबदेही इसलिए नहीं आ पा रही है, क्योंकि अपने निर्वाचन की पद्धति ऐसी है कि 25-30 प्रतिशत मतदान में कोई भी उम्मीदवार 10-12 प्रतिशत मत पाकर भी लोकसभा अथवा विधानसभा का सदस्य बन सकता है। (लेखक रक्षा एवं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:- दैनिक जागरण
Wednesday, June 23, 2010
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