Wednesday, June 23, 2010

राजनीतिक मूल्यों की स्थापना

राजनीतिक मूल्यों की स्थापना के लिए आम जनता और बुद्धिजीवियों का सकारात्मक हस्तक्षेप जरूरी बता रहे हैं डॉ. निरंजन कुमार
चर्चित फिल्म राजनीति एक तरह से आज की भारतीय राजनीति का आईना है। फिल्म में सत्ता के लिए जो हिंसा, छल-फरेब, पैसों का लेन-देन, नेताओं की खरीद-फरोख्त आदि दिखाई गई है, वह सच्चाई से बहुत परे नहीं है। कुछ लोगों को यह फिल्म निराश कर सकती है, लेकिन आज हमारे स्वाधीनता आंदोलन के दौर के नेताओं की खेप खत्म हो चुकी है, जिन्होंने राजनीति में कदम एक मिशन के तौर पर रखा था। तिलक, गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, सुभाष और अंबेडकर आदि के लिए सियासत देश सेवा का माध्यम थी। लेकिन आजादी के बाद राजनीति का धीरे-धीरे जो पतन शुरू हुआ, वह आज अपने चरम पर पहुंच चुका है। नेताओं ने राजनीति को इतना हावी कर दिया है कि हर चीज राजनीति से तय होने लगी है। हमारे नेताओं ने सभी जनतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है, पारदर्शिता खत्म हो गई है। हर काम के लिए नेताओं के चक्कर लगाइए, जुगाड़, सिफारिश या घूस दीजिए। मुझे अपने अमेरिकी मित्र की बात याद आती है, जो हाल ही में भारत भ्रमण पर आए थे। मैंने उनसे पूछा कि भारत में उन्हें क्या खास लगा? उनका जवाब चौंकाने वाला था कि भारत जगह-जगह राजनीतिक पार्टियों के पोस्टर-बैनर या फिर राजनेताओं के बड़े-बड़े साइनबोर्ड या तस्वीर दिखाई पड़ती हैं। बरबस मुझे अमेरिका की याद आई। वहां इस तरह के पोस्टर और साइनबोर्ड आप नहीं पाएंगे। राजनीतिक-समाजशास्ति्रयों ने अपने अध्ययनों में बताया है कि जो समाज अपेक्षाकृत बंद हो, जहां जड़ता अधिक हो और आगे बढ़ने में जाति, मजहब जैसे आदिम तत्वों की भूमिका महत्वपूर्ण हो, वहां राजनीति ही सामाजिक गतिशीलता का सबसे प्रभावी माध्यम हो जाता है। फिर सियासत सामाजिक गतिशीलता तक ही सीमित न रहकर एक कुरूप चेहरा धारण करने लगती है। यह सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ, धन कमाने का भी साधन हो जाती है। राजनीतिक प्रभाव से वैध-अवैध तरीके से धन कमाना कोई गुप्त बात नहीं रह गई है। राजनीतिक प्रभाव से पेट्रोल पंप, गैस एजेंसी हासिल करने से लेकर सरकारी ठेके हथियाना और काले धंधों के द्वारा करोड़ों-अरबों का घोटाला करना आम बात हो गई है। फिर, कई मामलों में नेता-मंत्री अपने को देश के कानून-संविधान आदि से भी ऊपर समझने लगते हैं। संविधान के अनुच्छेद 14 में स्पष्ट उल्लेख है कि कानून के समक्ष सभी समान होंगे। लेकिन इस सैद्धांतिक वाक्य की पोल इसी बात से खुल जाती है कि अपवादों को छोड़ दें तो किसी भी गबन, घोटाले, अपराध, हत्या, अपहरण आदि में शामिल या लिप्त होने के बावजूद राजनेताओं का कुछ नहीं बिगड़ता। कोर्ट में मामला इस तरह उलझा दिया जाएगा, या फिर पुलिस, सीबीआई केस को इतना कमजोर कर देंगी या इतनी धीमी गति से कार्रवाई चलेगी कि मुकदमा आजीवन चलता रहेगा। अंग्रेजी उपन्यास एनीमल फार्म की तर्ज पर नेता शायद यह सोचते हैं कि सब समान हैं किंतु वे कुछ अधिक ही समान हैं। राजनेता और मंत्री इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि तमाम सरकारी-गैर सरकारी पदों पर अवैध नियुक्तियां करवा सकते हैं। कुछ ही दिन पहले झारखंड में लोक सेवा आयोग के परिणामों के घोटाले का पर्दाफाश हुआ। सफल उम्मीदवारों में दो दर्जन नेताओं के बंधु-बांधव हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा, पूर्व उप मुख्यमंत्री सुदेश महतो तक के लोग इन उम्मीदवारों में हैं। सिपाही बहाली से लेकर शिक्षक-नियुक्ति तक में लाखों की रिश्वत चलती है। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लेकर लोकसेवा आयोग के सदस्यों तक की नियुक्ति ये नेता ही करते हैं। यह अलग बात है कि वे खुद चाहे मिडिल पास भी न हों। इसी तरह जिंदगी में क्रिकेट का बैट चाहे न पकड़ा हो, टेनिस का रैकेट न छुआ हो, पर खेल संगठनों के सर्वोच्च पदों पर राजनेता ही विराजमान होंगे। हर जगह उन्हें वीआईपी ट्रीटमेंट मिलेगा। यह अनायास नहीं कि आज देश की संसद से लेकर विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है और बात एक पार्टी तक सीमित नहीं है। फिर नेता बनने के लिए किसी योग्यता-अर्हता की भी जरूरत नहीं। कोई कठिन परीक्षा पास नहीं करनी। अनपढ़ हों, बदमाश हों, हिस्ट्रीशीटर हों, सामाजिक-राजनीतिक जीवन का कोई अनुभव न हो; कोई बात नहीं। आपके पास धनबल, बाहुबल और जातिबल होना चाहिए; देश की भोली-भाली जनता आपको इन्हीं के आधार पर जिता देगी। कम से कम अब लोगों को समझ जाना चाहिए कि क्यों हमारा देश इतने अच्छे संविधान, अच्छी नीतियों के बावजूद पीछे है। अमेरिका में राजनीतिज्ञों का वह रुतबा नहीं है, जो भारत में है। हर काम अपने रूटीन तरीके और आसानी से हो जाता है। बिजली का कनेक्शन लेना हो या कालोनी में नाली बनवाना हो, नेताओं के चक्कर काटने के कोई जरूरत नहीं। लोकतांत्रिक और शासन संस्थाएं स्वत: और सुचारू रूप से कार्य करती हैं। अगर कोई कानून तोड़ता है तो उसे सजा जरूर मिलेगी, चाहे वह राष्ट्रपति का बेटा ही क्यों न हो। बिल क्लिंटन की बेटी को कार चलाते वक्त कानून के उल्लंघन पर सजा मिली थी। वहां राजनीति में वही जाते हैं जो सचमुच सार्वजनिक जीवन से जुड़ना चाहते हैं। इस देश को अगर आगे बढ़ना है तो आम जनता और बुद्धिजीवियों को राजनीति में सकारात्मक हस्तक्षेप करना होगा। तभी हम दुनिया के सामने अपने देश और राजनीति की वह तस्वीर पेश कर सकेंगे जो राजनीति फिल्म से अलग हो। (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
साभार:- दैनिक जागरण

1 comment:

Anonymous said...

क्या शानदार, भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के गिरते मूल्यों का आपने उल्लेख किया है, धन्यवाद।