Thursday, August 26, 2010

सुधार का लंबा इंतजार

न्यायिक सुधार के संदर्भ में संविधान समीक्षा आयोग के कामकाज पर निगाह डाल रहे हैं सुभाष कश्यप


संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले आयोग (एनसीआरडब्ल्यूसी) की 31 मार्च, 2002 को सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट अपनी सिफारिशों पर अपेक्षित राष्ट्रव्यापी बहस छेड़ने में विफल रही है। इसका कारण शायद यह रहा कि एनसीआरडब्ल्यूसी खुद को न्यायपालिका की समस्याओं से पूरी तरह नहीं जोड़ पाया, खासतौर पर न्यायपालिका की कार्यपद्धति के विश्लेषण और इस क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता के साथ। शुरू में, आयोग ने परामर्श-पत्र के आधार पर कार्यवाही आरंभ की। इस मुद्दे पर भारत के पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमन और दो पूर्व मुख्य न्यायाधीशों जैसे प्रख्यात व्यक्तियों के विचार और प्रतिक्रिया ली गईं। न्यायाधीश वेंकटरमैया के अनुसार, सेकंड जज मामले में अनुच्छेद 124 की व्याख्या करते हुए अधिसंख्य जज इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि यह संविधान की मूल भावना से अलग हो गया है। इन्होंने राष्ट्रपति की भूमिका को निष्प्रभावी बना दिया और अनुच्छेद 74 का हवाला दिया, जिसमें मंत्रिपरिषद की सलाह व सहयोग के आधार पर राष्ट्रपति के फैसले को असंगत घोषित कर दिया गया। संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति महज संवैधानिक प्रमुख होते हैं। राष्ट्रपति द्वारा जो कार्य निष्पादित किए जाते हैं वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश चुने हुए प्रतिनिधि नहीं होते। ऐसे में वे राष्ट्रपति की भूमिका को सीमित करने के लिए नहीं कह सकते। इससे भविष्य में अन्य अनपेक्षित स्थान पर निरंकुशता की अनदेखी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 124 को जो नया अर्थ दिया गया है वह इसकी व्याख्या के दायरे से बाहर जाकर स्पष्ट तौर पर संवैधानिक प्रावधान के पुनर्लेखन का मामला बन गया है। सेकंड जज मामले में बहुमत के फैसले को सुनाने वाले जस्टिस वर्मा ने खुद स्पष्ट किया है कि उन्होंने इस बात की वकालत की है कि संविधान की मंशा न तो न्यायपालिका और न ही कार्यपालिका को प्रमुखता देने की है। इन दोनों संस्थानों की जिम्मेदारी है कि वे नियुक्ति के लिए सबसे योग्य व्यक्ति को चुनें और यह काम सबसे बेहतर ढंग से राष्ट्रीय न्यायिक आयोग कर सकता है, जिसमें तमाम क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो और जिसकी अध्यक्षता उप राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री या भारत के मुख्य न्यायाधीश करें। न्यायपालिक, विधायिका और कार्यपालिका-ये सब संविधान की सृष्टि हैं। इनकी शक्तियां और कार्य संविधान द्वारा परिभाषित और सीमांकित हैं। यह संविधान ही है, जो सर्वोच्च है और संविधान वह है जो है, न कि जैसा सुप्रीम कोर्ट बताता है और जैसा संसद चाहती है। राष्ट्र के किसी भी अंग द्वारा मात्र व्याख्यात्मक प्रक्रिया के आधार पर संविधान में परिवर्तन का प्रयास नहीं होना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण यह सवाल है कि लोकतंत्र के किस अंग को संविधान ने जजों की नियुक्ति की शक्ति दी है? इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले कि यह शक्ति न्यायपालिका या विधायिका या कार्यपालिका के पास है, हमें सुप्रीम कोर्ट के रुख पर ध्यान देना चाहिए कि री स्पेशल रेफरेंस 1 ऑफ 1964 (1965(1) एससीआर 413) के तहत विधायिका, मंत्री, जज-सभी संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ इसलिए लेते हैं, क्योंकि संविधान के संगत प्रावधानों से ही उन्हें अधिसत्ता हासिल होती है। एनसीआरडब्ल्यूसी में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के तंत्र पर सर्वसम्मति बन गई थी कि कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा जजों की नियुक्ति की शक्ति का मनमाना इस्तेमाल नहीं किया गया है। दिसंबर 2001 में अपनी 14वीं बैठक में आयोग ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग में उप राष्ट्रपति, केंद्रीय कानून मंत्री, मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों को शामिल करने का स्पष्ट फैसला किया। सर्वसम्मति से लिए गए आयोग के कुछ अन्य फैसलों में यह अनुशंसा भी शामिल थी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु समान होनी चाहिए और यह 65 साल हो सकती है। इसके अलावा आयोग ने यह भी कहा था कि रिटायर्ड जज को किसी भी प्रकार की सवेतन सरकारी नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। आयोग की अंतिम रिपोर्ट में इन सिफारिशों को स्थान नहीं मिल सका, जबकि रिपोर्ट के भाग दो में लिखा है कि ये अनुशंसाएं आयोग की बैठक की कार्ययोजना में शामिल की गई थीं। अंतिम रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु समान करने संबंधी सैद्धांतिक फैसले को भी दरकिनार कर दिया गया। इसने प्रस्तावित किया कि हाई कोर्ट के जज की सेवानिवृत्ति 65 वर्ष और सुप्रीम कोर्ट के जज की 68 वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के संबंध में अंतिम रिपोर्ट में उप राष्ट्रपति को हटाकर उनके स्थान पर मुख्य न्यायाधीश को अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया गया। इस प्रकार साथी जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका को प्रमुखता और बहुमत प्रदान कर दिया गया। अगर न्यायपालिका की स्वतंत्रता, प्रमुखता और श्रेष्ठता महत्वपूर्ण है और इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि यह महत्वपूर्ण है तो संसद की भी स्वतंत्रता, प्रमुखता और श्रेष्ठता महत्वपूर्ण है। आखिरकार, अपनी तमाम खामियों के बावजूद संसद ही लोगों का सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्थान है। यह प्रयास होना चाहिए कि राज्य के तमाम अंगों को नागरिकों के प्रति मित्रतापूर्ण रुख अपनाना चाहिए और ये जनोन्मुख होने चाहिए, न कि जज, वकील, प्रशासक, सांसद या विधायक की श्रेष्ठता स्थापित करने वाला। अंतिम रिपोर्ट में न्यायपालिका से संबंधित अध्याय में गंभीर खामियां हैं। अत्यधिक आवश्यक न्यायिक सुधारों के मुद्दे को छुआ तक नहीं गया। 11वीं बैठक की कार्यसूची के अनुसार, आयोग के विचार-विमर्श के लिए इन सुझावों को शामिल किया गया था-न्यायपालिका के हर स्तर के सदस्यों के लिए नियुक्ति के समय सघन प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करना, निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के कर्मियों के लिए नियमित अंतराल पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों का उन्नयन करना, वकीलों की पेशेवर कुशलता में निखार के लिए प्रशिक्षण शिविर लगाना, वकीलों को ए, बी, सी श्रेणी में वर्गीकृत करते हुए उनकी फीस का नियमन करना, कार्यवाही स्थगित करने की सीमा निर्धारित करना, अनावश्यक लंबे और पीएचडी थीसिस सरीखे फैसले देने को हतोत्साहित करना, लिखित दलीलों का प्रावधान करना, गरमियों और सर्दियों के अवकाश की औपनिवेशिक परंपरा को खत्म करना, एक साल में कम से कम 220 दिनों का काम सुनिश्चित करना, लंबित मामलों के निपटारे के लिए समय सारणी निर्धारित करना और वर्तमान मामलों का समयबद्ध निपटारा करना, मामलों को अदालत से बाहर निपटाने के वैकल्पिक उपाय सुझाना, अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी उपकरणों का बेहतर इस्तेमाल करना और अदालतों को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाना। आयोग के आलोचकों को शांत करने के लिए कम से कम इन तमाम सुझावों पर विचार करना और न्यायिक सुधारों के लिए उपयुक्त सिफारिशें करना जरूरी है। (लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

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