Thursday, August 26, 2010

गांधी परिवार की वफादारी

एंडरसन मामले में अर्जुन सिंह और रसगोत्रा के बयान पर हैरत जता रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

जब से भोपाल गैस मामले में अदालत ने अपना फैसला सुनाया है और मीडिया ने इस तथ्य को उजागर किया कि केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन के साथ शाही व्यवहार किया तभी से कांग्रेस पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बचाकर दूसरे लोगों पर जिम्मेदारी थोपने के अपने पुराने खेल पर उतर आई है। कांग्रेस की कोशिश हरसंभव तरीके से यह साबित करने की है कि भोपाल गैस मामले में दोषियों को बच निकलने का अवसर देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिम्मेदार नहीं थे। कांग्रेस के लिए पसंदीदा निशाना पीवी नरसिंह राव हैं, जो बौद्धिक और साथ ही प्रशासनिक रूप से राजीव गांधी से कहीं अधिक श्रेष्ठ थे। जिन लोगों ने कांग्रेस की इस मुहिम में मदद की है और इस प्रकार नेहरू-गांधी परिवार को उपकृत किया उनमें मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा शामिल हैं। अर्जुन सिंह ही भोपाल गैस कांड के समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। अर्जुन सिंह के अनुसार दिसंबर 1984 में भोपाल में भयानक गैस लीक होने के तत्काल बाद उन्हें यह सुनकर धक्का लगा कि वारेन एंडरसन इस त्रासदी के पीडि़तों के प्रति संवेदना-सहानुभूति प्रकट करने खुद ही भोपाल आ रहा है। उन्होंने तत्काल ही एंडरसन की गिरफ्तारी के आदेश दिए, लेकिन इस मसले पर राजीव गांधी से उनकी कोई बातचीत नहीं हुई, जो उसी दिन भोपाल आए थे। अगले दिन एक जनसभा में उनकी राजीव गांधी से फिर मुलाकात हुई, लेकिन यहां भी प्रधानमंत्री ने एंडरसन के बारे में कोई पूछताछ नहींकी। इसी बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय के कुछ अज्ञात अधिकारियों ने मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव को टेलीफोन कर एंडरसन को छोड़ देने के लिए कहा। मुख्य सचिव ने यह बात अर्जुन सिंह को बताई और एक दिन पहले एंडरसन को सलाखों के पीछे भेजने का आदेश देने वाले अर्जुन सिंह ने उसे छोड़ देने की अनुमति दे दी। अर्जुन सिंह ने यह जानने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री नरसिंह राव को एक फोन भी करने की जरूरत नहीं समझी कि क्या वह वास्तव में चाहते हैं कि एंडरसन को छोड़ दिया जाए और क्या उन्होंने अपने यहां के किसी अधिकारी को एंडरसन को छोड़ देने के लिए फोन करने के लिए कहा था? हैरत की बात है कि अर्जुन सिंह ने इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप के संदर्भ में प्रधानमंत्री से शिकायत करना भी जरूरी नहींसमझा। अर्जुन सिंह के बयान से स्पष्ट है कि उन्होंने गृह मंत्रालय के एक अज्ञात अधिकारी के टेलीफोन के आधार पर ही एंडरसन को बच निकलने का मौका दे दिया। इसके अतिरिक्त यह भी सबको पता है कि वारेन एंडरसन के प्रति अर्जुन सिंह के कथित सख्त रवैये के बावजूद एंडरसन से राजकीय अतिथि जैसा व्यवहार किया गया। उसे किसी मजस्टि्रेट के सामने भी पेश नहींकिया गया, बल्कि मजिस्ट्रेट को उसके सामने हाजिर किया गया। तथ्य यह है कि मजिस्ट्रेट को गेस्ट हाउस ले जाया गया ताकि एंडरसन को जमानत पर छोड़ा जा सके। इसके बाद अर्जुन सिंह ने एंडरसन को दिल्ली ले जाने के लिए सरकारी हेलीकाप्टर भी मुहैया कराया। इसके बाद भी अर्जुन सिंह हम सभी को यह समझाना चाहते हैं कि हेलीकाप्टर की व्यवस्था उनकी जानकारी अथवा सहमति के बिना की गई-बावजूद इसके कि दस्तावेज में उनके आदेश का जिक्र है। लॉग बुक में लिखा है-मुख्यमंत्री के निर्देश पर विशेष उड़ान। कोई मुख्यमंत्री इससे अधिक गैर-जिम्मेदार कैसे हो सकता है? अर्जुन सिंह के इस बयान से हमें यह भी पता चलता है कि नेहरू-गांधी परिवार की छवि पर कोई आंच न आने देने के लिए सच्चाई का गला घोंटने और इतिहास को झूठा सिद्ध करने में कांग्रेस के नेता किस हद तक जा सकते हैं? भोपाल गैस मामले में अर्जुन सिंह के इस बयान को मई 2008 में नेहरू-गांधी परिवार के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हुए दिए गए उनके बयान के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि जब मैं मार्च 1960 में जवाहर लाल नेहरू जी से मिला तब मैंने उनके और उनके परिवार के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा की शपथ ली। अपने जीवन के पिछले 48 वर्र्षो में मैंने पूरी तरह इसका पालन किया। मैं अपने बाकी जीवन में इस निष्ठा और प्रतिबद्धता को बरकरार रखने के लिए सब कुछ करूंगा। नेहरू-गांधी परिवार के प्रति इतनी स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने में कांग्रेस पार्टी के नेता अकेले नहीं हैं। अनेक नौकरशाह और कूटनीतिज्ञ भी एक राजनीतिक परिवार अथवा राजनीतिक दल के प्रति अपनी वफादारी में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि खुद को ही फंसा बैठते हैं। पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा भी ऐसे ही एक नौकरशाह हैं, जो सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस पार्टी के विदेशी मामलों के सेल के सदस्य बन गए। उन्होंने एक साक्षात्कार में एंडरसन की रिहाई के मामले में अजीब जवाब दिए। जब उनसे पूछा गया कि क्या राजीव गांधी से सलाह ली गई थी? उन्होंने जवाब दिया-राजीव गांधी दिल्ली में नहीं थे। फिर उनसे पूछा गया कि क्या रीगन ने राजीव गांधी को फोन किया था? रसगोत्रा ने कहा-हो सकता है। एक अन्य सवाल के जवाब में रसगोत्रा ने कहा कि नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के उप प्रमुख गार्डन स्ट्रीब ने उनसे कहा था कि एंडरसन भारत आने के लिए तैयार है, बशर्ते उसे सुरक्षित वापस जाने दिया जाए। चूंकि एंडरसन की भोपाल यात्रा इस शर्त से बंधी थी, इसलिए रसगोत्रा ने कैबिनेट सचिव और गृह मंत्री से संपर्क किया। कैबिनेट सचिव ने एंडरसन की रिहाई की अनुमति दी। रसगोत्रा गृह मंत्रालय के भी संपर्क में थे। राजीव गांधी उस समय वहां नहीं थे, इसलिए प्रधानमंत्री से बात करने का अवसर नहीं आया। रसगोत्रा का कहना है कि राजीव गांधी का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह कितनी असाधारण बात है? दिसंबर 1984 में भारत का विदेश सचिव रहा व्यक्ति बता रहा है कि अमेरिकी दूतावास के उपप्रमुख को एंडरसन के सुरक्षित वापस जाने का आश्वासन दिया गया था। इसलिए अपनी गिरफ्तारी के बाद एंडरसन ने गृह मंत्री (राव) से संपर्क किया और उसकी रिहाई हो गई। गृह मंत्री ने एक बार भी अपने बॉस यानी प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बात नहींकी, जिनके पास विदेश मंत्रालय भी था। हमारे विदेश सचिव ने भी भोपाल गैस कांड जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण मामले के मुख्य अभियुक्त से जुड़े मसले पर अपने बॉस यानी राजीव गांधी से बात करने की जरूरत नहीं समझी। इसलिए कि राजीव गांधी उस समय दिल्ली में नहीं थे। इस तथ्य पर भी गौर करें कि अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने संभवत: राजीव गांधी से बात की थी और इसकी जानकारी हमारे विदेश सचिव को नहीं थी। क्या कोई इन तथ्यों पर भरोसा कर सकता है? यदि यह सब वाकई सत्य है तो क्या हमें अपने विदेश सचिवों की काबिलियत पर चिंतित नहीं होना चाहिए? हमें अंदाज लगा लेना चाहिए कि हमारी सेवाओं का स्तर कितना गिर गया है कि एक विदेश सचिव बड़ी गंभीरता से यह सोचता है कि वह जो अधकचरी कहानी सुना रहा है उस पर देश की जनता भरोसा कर लेगी। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)साभार:-दैनिक जागरण

सुधार का लंबा इंतजार

न्यायिक सुधार के संदर्भ में संविधान समीक्षा आयोग के कामकाज पर निगाह डाल रहे हैं सुभाष कश्यप


संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले आयोग (एनसीआरडब्ल्यूसी) की 31 मार्च, 2002 को सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट अपनी सिफारिशों पर अपेक्षित राष्ट्रव्यापी बहस छेड़ने में विफल रही है। इसका कारण शायद यह रहा कि एनसीआरडब्ल्यूसी खुद को न्यायपालिका की समस्याओं से पूरी तरह नहीं जोड़ पाया, खासतौर पर न्यायपालिका की कार्यपद्धति के विश्लेषण और इस क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता के साथ। शुरू में, आयोग ने परामर्श-पत्र के आधार पर कार्यवाही आरंभ की। इस मुद्दे पर भारत के पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमन और दो पूर्व मुख्य न्यायाधीशों जैसे प्रख्यात व्यक्तियों के विचार और प्रतिक्रिया ली गईं। न्यायाधीश वेंकटरमैया के अनुसार, सेकंड जज मामले में अनुच्छेद 124 की व्याख्या करते हुए अधिसंख्य जज इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि यह संविधान की मूल भावना से अलग हो गया है। इन्होंने राष्ट्रपति की भूमिका को निष्प्रभावी बना दिया और अनुच्छेद 74 का हवाला दिया, जिसमें मंत्रिपरिषद की सलाह व सहयोग के आधार पर राष्ट्रपति के फैसले को असंगत घोषित कर दिया गया। संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति महज संवैधानिक प्रमुख होते हैं। राष्ट्रपति द्वारा जो कार्य निष्पादित किए जाते हैं वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश चुने हुए प्रतिनिधि नहीं होते। ऐसे में वे राष्ट्रपति की भूमिका को सीमित करने के लिए नहीं कह सकते। इससे भविष्य में अन्य अनपेक्षित स्थान पर निरंकुशता की अनदेखी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 124 को जो नया अर्थ दिया गया है वह इसकी व्याख्या के दायरे से बाहर जाकर स्पष्ट तौर पर संवैधानिक प्रावधान के पुनर्लेखन का मामला बन गया है। सेकंड जज मामले में बहुमत के फैसले को सुनाने वाले जस्टिस वर्मा ने खुद स्पष्ट किया है कि उन्होंने इस बात की वकालत की है कि संविधान की मंशा न तो न्यायपालिका और न ही कार्यपालिका को प्रमुखता देने की है। इन दोनों संस्थानों की जिम्मेदारी है कि वे नियुक्ति के लिए सबसे योग्य व्यक्ति को चुनें और यह काम सबसे बेहतर ढंग से राष्ट्रीय न्यायिक आयोग कर सकता है, जिसमें तमाम क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो और जिसकी अध्यक्षता उप राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री या भारत के मुख्य न्यायाधीश करें। न्यायपालिक, विधायिका और कार्यपालिका-ये सब संविधान की सृष्टि हैं। इनकी शक्तियां और कार्य संविधान द्वारा परिभाषित और सीमांकित हैं। यह संविधान ही है, जो सर्वोच्च है और संविधान वह है जो है, न कि जैसा सुप्रीम कोर्ट बताता है और जैसा संसद चाहती है। राष्ट्र के किसी भी अंग द्वारा मात्र व्याख्यात्मक प्रक्रिया के आधार पर संविधान में परिवर्तन का प्रयास नहीं होना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण यह सवाल है कि लोकतंत्र के किस अंग को संविधान ने जजों की नियुक्ति की शक्ति दी है? इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले कि यह शक्ति न्यायपालिका या विधायिका या कार्यपालिका के पास है, हमें सुप्रीम कोर्ट के रुख पर ध्यान देना चाहिए कि री स्पेशल रेफरेंस 1 ऑफ 1964 (1965(1) एससीआर 413) के तहत विधायिका, मंत्री, जज-सभी संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ इसलिए लेते हैं, क्योंकि संविधान के संगत प्रावधानों से ही उन्हें अधिसत्ता हासिल होती है। एनसीआरडब्ल्यूसी में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के तंत्र पर सर्वसम्मति बन गई थी कि कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा जजों की नियुक्ति की शक्ति का मनमाना इस्तेमाल नहीं किया गया है। दिसंबर 2001 में अपनी 14वीं बैठक में आयोग ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग में उप राष्ट्रपति, केंद्रीय कानून मंत्री, मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों को शामिल करने का स्पष्ट फैसला किया। सर्वसम्मति से लिए गए आयोग के कुछ अन्य फैसलों में यह अनुशंसा भी शामिल थी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु समान होनी चाहिए और यह 65 साल हो सकती है। इसके अलावा आयोग ने यह भी कहा था कि रिटायर्ड जज को किसी भी प्रकार की सवेतन सरकारी नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। आयोग की अंतिम रिपोर्ट में इन सिफारिशों को स्थान नहीं मिल सका, जबकि रिपोर्ट के भाग दो में लिखा है कि ये अनुशंसाएं आयोग की बैठक की कार्ययोजना में शामिल की गई थीं। अंतिम रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु समान करने संबंधी सैद्धांतिक फैसले को भी दरकिनार कर दिया गया। इसने प्रस्तावित किया कि हाई कोर्ट के जज की सेवानिवृत्ति 65 वर्ष और सुप्रीम कोर्ट के जज की 68 वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के संबंध में अंतिम रिपोर्ट में उप राष्ट्रपति को हटाकर उनके स्थान पर मुख्य न्यायाधीश को अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया गया। इस प्रकार साथी जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका को प्रमुखता और बहुमत प्रदान कर दिया गया। अगर न्यायपालिका की स्वतंत्रता, प्रमुखता और श्रेष्ठता महत्वपूर्ण है और इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि यह महत्वपूर्ण है तो संसद की भी स्वतंत्रता, प्रमुखता और श्रेष्ठता महत्वपूर्ण है। आखिरकार, अपनी तमाम खामियों के बावजूद संसद ही लोगों का सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्थान है। यह प्रयास होना चाहिए कि राज्य के तमाम अंगों को नागरिकों के प्रति मित्रतापूर्ण रुख अपनाना चाहिए और ये जनोन्मुख होने चाहिए, न कि जज, वकील, प्रशासक, सांसद या विधायक की श्रेष्ठता स्थापित करने वाला। अंतिम रिपोर्ट में न्यायपालिका से संबंधित अध्याय में गंभीर खामियां हैं। अत्यधिक आवश्यक न्यायिक सुधारों के मुद्दे को छुआ तक नहीं गया। 11वीं बैठक की कार्यसूची के अनुसार, आयोग के विचार-विमर्श के लिए इन सुझावों को शामिल किया गया था-न्यायपालिका के हर स्तर के सदस्यों के लिए नियुक्ति के समय सघन प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करना, निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के कर्मियों के लिए नियमित अंतराल पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों का उन्नयन करना, वकीलों की पेशेवर कुशलता में निखार के लिए प्रशिक्षण शिविर लगाना, वकीलों को ए, बी, सी श्रेणी में वर्गीकृत करते हुए उनकी फीस का नियमन करना, कार्यवाही स्थगित करने की सीमा निर्धारित करना, अनावश्यक लंबे और पीएचडी थीसिस सरीखे फैसले देने को हतोत्साहित करना, लिखित दलीलों का प्रावधान करना, गरमियों और सर्दियों के अवकाश की औपनिवेशिक परंपरा को खत्म करना, एक साल में कम से कम 220 दिनों का काम सुनिश्चित करना, लंबित मामलों के निपटारे के लिए समय सारणी निर्धारित करना और वर्तमान मामलों का समयबद्ध निपटारा करना, मामलों को अदालत से बाहर निपटाने के वैकल्पिक उपाय सुझाना, अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी उपकरणों का बेहतर इस्तेमाल करना और अदालतों को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाना। आयोग के आलोचकों को शांत करने के लिए कम से कम इन तमाम सुझावों पर विचार करना और न्यायिक सुधारों के लिए उपयुक्त सिफारिशें करना जरूरी है। (लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

फिदा हुसैन की कलाबाजी

भारत छोड़ चुके चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने एक अंग्रेजी दैनिक में छपे अपने लेख में लिखा है कि कश्मीर में लड़के इसलिए पत्थरबाजी कर रहे हैं, क्योंकि उनकी आवाज छीन ली गई है और उनकी गर्दन पर बंदूक रखी गई है। भारत पर आरोप लगाते हुसैन उन कश्मीरियों से अपनी तुलना करते हैं, जिसने स्वतंत्रता की चाह और भय के कारण भारत को त्याग दिया। यह वही हुसैन हैं जिन्होंने मार्च में एक समाचार चैनल पर दिए इंटरव्यू में कुछ और कहा था। तब उन्होंने देश बदलने के पीछे टैक्स बचाने की इच्छा, अपनी बड़ी मह्त्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए प्रायोजक ढूंढने और उन योजनाओं को पूरा करने की चाह जैसे कारण गिनाए थे। सवाल है कि उनके देश बदलने के पीछे कौन सी बात सही है? भारत में हुसैन के मित्र बुद्धिजीवी कहते हैं कि दोनों ही बात सही हैं, किंतु न तो हुसैन, न उनके मित्र उस मूल बात पर आते हैं जिस कारण वह वर्षो से भाग रहे हैं। हुसैन के खिलाफ हिंदू देवी-देवताओं तथा भारत माता की अभद्र तस्वीरें बनाकर हिंदुओं को अपमानित करने तथा सामाजिक तनाव पैदा करने के लिए मुकदमें दर्ज हंै। मूल बिंदु पर हुसैन जानबूझकर कभी नहीं आते। इसके बदले वे भारत और कुछ हिंदू संगठनों पर तीर चला रहे हैं। अब भारत का त्याग करने पर तरह-तरह की बयानबाजियां उनकी कला को और संदेहास्पद बना देती है। देवी-देवताओं की गंदी और भद्दी पेंटिगों पर हुसैन के बचाव में सारे तर्क दूसरे लोग देते हैं। एक बार मुंबई में किसी प्रदर्शनी में लगे उनके ऐसे चित्रों पर जब आपत्ति उठी तो उन्होंने माफी मांग कर चित्र हटा लिए। यदि हुसैन के पास उन गंदी तस्वीरों के कला-मूल्य के लिए कहने को कुछ नहीं, तो हिंदू परिवारों में जन्मे सेक्युलर-वामपंथी लेखक, पत्रकार क्यों कुतर्क करते हैं? सभी जानते हैं कि देवी-देवताओं के गंदे चित्रण पर मुकदमा कुछ अदद हिंदू व्यक्तियों ने किया है। देश की न्यायपालिका पूर्णत: स्वतंत्र और निष्पक्ष है, इसलिए प्रश्न उठता है कि हुसैन कानून और न्यायालयों से क्यों भाग रहे हैं? यह कहना कि भारत ने हुसैन के साथ अन्याय किया है, एक मिथ्या प्रचार है। हमारे अनेक कथित बुद्धिजीवियों को हुसैन से उतनी सहानुभूति नहीं, जितना हिंदू भाव से दुराव है। इसीलिए वे हुसैन प्रसंग का उपयोग अपनी राजनीतिक जिद पूरी करने में लगाते हैं। अन्यथा वह हुसैन को सलाह देते कि वह यहां के न्यायालय में अपना पक्ष रखें और छुट्टी पा लें। जहां तक हुसैन की पेंटिंगों के कला-मूल्य का प्रश्न है, तो स्थिति और बेढब है। यह संयोग नहीं कि मीडिया और बौद्धिक मंचों पर यह सवाल उठाया ही नहीं जाता, क्योंकि तब उन्हें बताना होगा कि घर-घर पूजी जाने वाली ंिहंदू देवी को अपने वाहन पशु के साथ मैथुन-मुद्रा में दिखाने में कौन सी कला झलकती है? इस गंभीर प्रश्न का उत्तर देना होगा, जैसा कि प्रसिद्ध चित्रकार सतीश गुजराल ने पूछा है, क्या हुसैन इस्लामी विभूतियों के साथ वही प्रयोग कर सकते हैं जो उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं के साथ किया है? इसका उत्तर सबको वैसे भी पता है। हुसैन ने पैगंबर की बेटी फातिमा, स्वयं अपनी माता, मदर टेरेसा आदि अनेक गैर-हिंदू आराध्यों के चित्र पूरे शालीन वस्त्रों में बनाए हैं। स्पष्ट है कि हिंदू देवियों के भद्दे चित्र बनाने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कानूनी तर्कके सिवाय बचाव में हुसैन और कुछ नहीं कह सकते। ऐसा भी प्रतीत होता है कि हुसैन के मंसूबे बाहर से कुछ और भीतर से कुछ और रहे हैं। यदि वे अपने गंदे चित्रों के लिए एक बार माफी मांग चुके तो फिर वैसे चित्र दोबारा क्यों बनाए? दूसरे, यदि उन्हें अपने देश से प्रेम है, जैसा वह कहते हैं तो देश के संविधान और कानून की अवज्ञा क्यों कर रहे हैं? तीसरे, एक अलोकतांत्रिक देश की नागरिकता लेने को क्यों तैयार हो गए? अंतत: यदि वह निर्दोष हैं तो दूसरों पर आरोप लगाने की बजाय अपने पक्ष में विस्तृत कानूनी बयान क्यों नहीं जारी करते? कतर से दिए जाने वाले उनके सार्वजनिक वक्तव्यों में भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता इसलिए यही जान पड़ता है कि हुसैन कलाबाजी कर रहे हैं। वह चार साल से कतर में रह रहे हैं, यह तो सब जानते हैं, किंतु यह कितने लोग जानते हैं कि वह वहां अरब सभ्यता के चित्रण की एक बहुत बड़ी और महंगी परियोजना पर काम कर रहे हैं जो स्वयं वहां के राजपरिवार ने उन्हें सौंपी है? यानी हुसैन करोड़ों के पेंटिंग प्रोजेक्ट में लगे हुए हैं, जबकि बयान किसी विवश, उत्पीडि़त व्यक्ति जैसे दे रहे हैं, जो मानो किसी तरह विदेश में समय काट रहा हो। नि:संदेह जो माफी एक बार हुसैन मुंबई में मांग चुके थे, वही न्यायालयों में दोहरा कर किस्सा खत्म कर सकते थे, पर यह खुला मार्ग अपनाने के बदले हुसैन और उनके हिंदू-विरोधी समर्थक राजनीति कर रहे हैं। भारत और हिंदुओं की बदनामी करने में सब तरीका जायज है, यही हुसैन प्रकरण का एक मात्र सही निष्कर्ष है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

Tuesday, August 24, 2010

कृत्यों पर पर्दा डालने के कांग्रेस के अजब ढंग

आपातकाल संबंधी दस्तावेज नष्ट कर दिए जाने पर आश्चर्य जता रहे हैं कुलदीप नैयर

यह है महज संयोग ही है कि 15 अगस्त से पूर्व एक सजग पत्रकार ने यह समाचार प्रसारित किया कि कांग्रेस ने जनवरी, 1977 की हमारी दूसरी आजादी से संबंधित सभी कागजात नष्ट कर दिए हैं। यदि इतनी आसानी से इतिहास का पुनर्लेखन करना संभव होता तो हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने जो अत्याचार किए थे उन्हें विश्व के स्मृतिपटल से मिटा दिया गया होता। यह विडंबना ही है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में 15 अगस्त, 1947 को लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के रूप में जो पहली आजादी आई थी उसके सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को उनकी अनुयायी इंदिरा गांधी ने 28 वर्ष बाद 25 जून, 1975 को आपातकाल थोपकर तबाह कर दिया था। जब 1977 में हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त मिली थी तो राष्ट्र ने दूसरी आजादी का उत्सव मनाया था। अपने कृत्यों पर पर्दा डालने के कांग्रेस के अजब ढंग है। गृह मंत्रालय का दावा है कि उसके पास तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद द्वारा आपातकाल घोषित करने से संबद्ध उद्घोषणा नहीं है, न ही उसके पास मिथ्या आरोपों के आधार पर हजारों लोगों को बंदी बनाने के निर्णयों से संबंधित कोई रिकॉर्ड है। उसके पास महत्वपूर्ण पदों पर दागी व्यक्तियों की नियुक्ति और हिरासत संबंधी विधि सम्मत व्यवस्थाओं के उल्लंघन का कोई रिकॉर्ड भी नहीं है। इससे तात्पर्य यह है कि 30 वर्ष अथवा उससे कम आयु के किसी व्यक्ति के लिए इस बारे में कोई ठोस सूचना प्राप्त कर पाना कठिन होगा कि उन काले दिनों में क्या-कुछ घटित हुआ था? हममें से अनेक को जयप्रकाश नारायण के साहस और नेतृत्व क्षमता का स्मरण है, जिन्होंने इंदिरा गांधी के कुशासन को चुनौती दी थी और अवहेलना तथा उल्लंघन का पथ अपनाया था। इसके बाद उन्हें बंदी बनाकर उनका उत्पीड़न किया गया। उन दिनों एमजी देवसहायम चंडीगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट थे, जहां जयप्रकाश नारायण हिरासत में रखे गए थे। उन्होंने अधिकारियों का ध्यान जयप्रकाश के गिरते हुए स्वास्थ्य की ओर खींचा था। जैसा कि देवसहायम ने अपनी पुस्तक में लिखा है-इसके जवाब में तत्कालीन रक्षा मंत्री बंसीलाल ने कहा थे-उसे मरने दो। यह आश्चर्यजनक है कि आपातकाल से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेजों के गुम हो जाने पर संसद में कोई हंगामा नहीं हुआ। न लालू यादव कुछ बोले और न ही मुलायम सिंह ने कुछ कहा। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के नेता भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोले, जो जेपी आंदोलन में शामिल थे। उन्होंने भी सरकार को कठघरे में खड़ा नहीं किया। गृह मंत्रालय ने बड़ी सहजता से खोए हुए दस्तावेजों की जिम्मेदारी भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार पर डाल दी। इसके विरोध में राष्ट्रीय अभिलेखागार का कहना है कि उसे इस तरह के कोई दस्तावेज संभालने के लिए दिए ही नहीं गए। यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि आपातकाल के दौरान हुई ज्यादती की जांच करने वाले शाह आयोग ने अपनी कार्रवाई के अंतिम दिन कहा था कि वह सारा रिकॉर्ड राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा करा रहा है। शाह आयोग ने सौ बैठकें की थीं, 48,000 कागजात की पड़ताल की थी और दो अंतरिम रिपोर्ट पेश की थीं। स्पष्ट है कि साक्ष्य नष्ट करने की प्रक्रिया 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के साथ ही शुरू हो गई थी। मुझे याद आता है कि शाह आयोग की रिपोर्ट की प्रतियां उस दुकान से गायब हो गई थीं जहां सरकारी प्रकाशन उपलब्ध थे। राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट-जिसमें इस बल को राजनीतिज्ञों के दबाव से मुक्त करने के लिए प्रशंसनीय सिफारिशें की गई थीं, बट्टे खाते में डाल दी गई थी, क्योंकि यह आयोग जनता सरकार द्वारा गठित किया गया था। इंदिरा गांधी ने पुलिसकर्मियों के सम्मान समारोह का तब बहिष्कार कर दिया था जब उनके सहायक आरके धवन ने उन्हें बताया कि ये पदक आपातकाल में हुई ज्यादतियों को उजागर करने के उपलक्ष्य में दिए जा रहे हैं। इंदिरा गांधी के बुरे कामों के रिकार्डो को छिपाकर कांग्रेस उन्हें पुन: प्रतिष्ठित नहीं कर सकती। नि:संदेह इंदिरा गांधी ने अपने जीवन में अनेक महान कार्य किए थे और राष्ट्रवाद के प्रति उनके समर्पण ने देश को गौरवान्वित किया था, किंतु उनकी भी अपनी सीमाएं थीं। वह राजनीति से नैतिकता के निष्कासन की जिम्मेदार थीं और उन्होंने नैतिकता और अनैतिकता की महीन रेखा को भी मिटा दिया था। हम उन दिनों के कारनामों की अभी तक कीमत चुका रहे हैं। उनके पुत्र संजय गांधी ने संविधानेतर सत्ता स्थापित की थी और विपक्ष को कुचल दिया था। यही नहीं, उन्होंने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की अवमानना भी की थी और मनमाने फैसले सख्ती से लागू किए गए थे। यह भी दुखद है कि उनके आगे मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी झुक गया था। जो प्रणाली आपातकाल के दौरान पट्टी से उतर गई थी, वह अभी तक अपनी राह पर नहीं आ पाई। ऐसा होने का कारण है नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों को जवाबदेही से छूट। शाह आयोग ने जिन लोगों को दोषी पाया था उनमें से कोई भी दंडित नहीं किया जा सका। सच्चाई यह है कि जो आपातकाल के दौरान ज्यादतियों में लिप्त रहे थे, उन्हें न केवल बारी से पहले पदोन्नत किया गया, बल्कि उनकी महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति भी की गई। शासकों को शाह आयोग के इस परामर्श पर ध्यान देना चाहिए कि यदि नौकरशाही के क्रियाकलाप के बारे में सरकार के दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जाए तो कुछ उपयोगी मकसद पूरा हो सकेगा। सरकार का बुनियादी दायित्व उन अधिकारियों को संरक्षण की गारंटी देना है जो उस आचरण संहिता से डिगने से इनकार कर देते हैं, जिसे अधिकारियों द्वारा ही नहीं, राजनेताओं द्वारा भी परिचालित किया जाना चाहिए। मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला गुम हुए रिकार्डो पर मौन रहे हैं। वह नेहरू-गांधी वंश के करीब हैं। फिर भी उन्होंने सूचना अधिकार की रूपरेखा को विस्तार देने का सराहनीय कार्य किया है। आपातकाल लागू करने की उद्घोषणा के बारे में राष्ट्रपति से उस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहने से पूर्व कैबिनेट से भी सलाह नहीं ली गई थी। अगले दिन कैबिनेट की बैठक में इसकी पुष्टि की गई। यह बात समझ आती है कि गृह मंत्रालय इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत तौर पर दोष दिए बिना इस बारे में स्पष्टीकरण नहीं दे सकता। वह तो न्यायालयों को भी बंद कर देना चाहती थीं, परंतु उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें आश्वस्त कर दिया गया था कि जज उनके अनुसार ही चलेंगे। ऐसा ही हुआ भी क्योंकि शायद ही कोई उच्च न्यायालय हो जिसने आपातकाल के दौरान कोई विपरीत निर्णय दिया हो। सर्वोच्च न्यायालय तक ने भी आपातकाल लागू किए जाने को 5-1 से सही ठहराया था। सत्य है कि यह सब अब इतिहास है, किंतु कांग्रेस इसका पुनर्लेखन तो नहीं कर सकती। सरकार और उसके नेताओं की असफलता को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। आने वाली पीढि़यों को यह जानना ही चाहिए कि कहां और कैसे देश के संस्थानों की स्वतंत्रता जोखिम में डाली गई थी और लोकतंत्र पटरी से उतरा था। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण

कृत्यों पर पर्दा डालने के कांग्रेस के अजब ढंग

आपातकाल संबंधी दस्तावेज नष्ट कर दिए जाने पर आश्चर्य जता रहे हैं कुलदीप नैयर
यह है महज संयोग ही है कि 15 अगस्त से पूर्व एक सजग पत्रकार ने यह समाचार प्रसारित किया कि कांग्रेस ने जनवरी, 1977 की हमारी दूसरी आजादी से संबंधित सभी कागजात नष्ट कर दिए हैं। यदि इतनी आसानी से इतिहास का पुनर्लेखन करना संभव होता तो हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने जो अत्याचार किए थे उन्हें विश्व के स्मृतिपटल से मिटा दिया गया होता। यह विडंबना ही है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में 15 अगस्त, 1947 को लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के रूप में जो पहली आजादी आई थी उसके सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को उनकी अनुयायी इंदिरा गांधी ने 28 वर्ष बाद 25 जून, 1975 को आपातकाल थोपकर तबाह कर दिया था। जब 1977 में हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त मिली थी तो राष्ट्र ने दूसरी आजादी का उत्सव मनाया था। अपने कृत्यों पर पर्दा डालने के कांग्रेस के अजब ढंग है। गृह मंत्रालय का दावा है कि उसके पास तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद द्वारा आपातकाल घोषित करने से संबद्ध उद्घोषणा नहीं है, न ही उसके पास मिथ्या आरोपों के आधार पर हजारों लोगों को बंदी बनाने के निर्णयों से संबंधित कोई रिकॉर्ड है। उसके पास महत्वपूर्ण पदों पर दागी व्यक्तियों की नियुक्ति और हिरासत संबंधी विधि सम्मत व्यवस्थाओं के उल्लंघन का कोई रिकॉर्ड भी नहीं है। इससे तात्पर्य यह है कि 30 वर्ष अथवा उससे कम आयु के किसी व्यक्ति के लिए इस बारे में कोई ठोस सूचना प्राप्त कर पाना कठिन होगा कि उन काले दिनों में क्या-कुछ घटित हुआ था? हममें से अनेक को जयप्रकाश नारायण के साहस और नेतृत्व क्षमता का स्मरण है, जिन्होंने इंदिरा गांधी के कुशासन को चुनौती दी थी और अवहेलना तथा उल्लंघन का पथ अपनाया था। इसके बाद उन्हें बंदी बनाकर उनका उत्पीड़न किया गया। उन दिनों एमजी देवसहायम चंडीगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट थे, जहां जयप्रकाश नारायण हिरासत में रखे गए थे। उन्होंने अधिकारियों का ध्यान जयप्रकाश के गिरते हुए स्वास्थ्य की ओर खींचा था। जैसा कि देवसहायम ने अपनी पुस्तक में लिखा है-इसके जवाब में तत्कालीन रक्षा मंत्री बंसीलाल ने कहा थे-उसे मरने दो। यह आश्चर्यजनक है कि आपातकाल से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेजों के गुम हो जाने पर संसद में कोई हंगामा नहीं हुआ। न लालू यादव कुछ बोले और न ही मुलायम सिंह ने कुछ कहा। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के नेता भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोले, जो जेपी आंदोलन में शामिल थे। उन्होंने भी सरकार को कठघरे में खड़ा नहीं किया। गृह मंत्रालय ने बड़ी सहजता से खोए हुए दस्तावेजों की जिम्मेदारी भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार पर डाल दी। इसके विरोध में राष्ट्रीय अभिलेखागार का कहना है कि उसे इस तरह के कोई दस्तावेज संभालने के लिए दिए ही नहीं गए। यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि आपातकाल के दौरान हुई ज्यादती की जांच करने वाले शाह आयोग ने अपनी कार्रवाई के अंतिम दिन कहा था कि वह सारा रिकॉर्ड राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा करा रहा है। शाह आयोग ने सौ बैठकें की थीं, 48,000 कागजात की पड़ताल की थी और दो अंतरिम रिपोर्ट पेश की थीं। स्पष्ट है कि साक्ष्य नष्ट करने की प्रक्रिया 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के साथ ही शुरू हो गई थी। मुझे याद आता है कि शाह आयोग की रिपोर्ट की प्रतियां उस दुकान से गायब हो गई थीं जहां सरकारी प्रकाशन उपलब्ध थे। राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट-जिसमें इस बल को राजनीतिज्ञों के दबाव से मुक्त करने के लिए प्रशंसनीय सिफारिशें की गई थीं, बट्टे खाते में डाल दी गई थी, क्योंकि यह आयोग जनता सरकार द्वारा गठित किया गया था। इंदिरा गांधी ने पुलिसकर्मियों के सम्मान समारोह का तब बहिष्कार कर दिया था जब उनके सहायक आरके धवन ने उन्हें बताया कि ये पदक आपातकाल में हुई ज्यादतियों को उजागर करने के उपलक्ष्य में दिए जा रहे हैं। इंदिरा गांधी के बुरे कामों के रिकार्डो को छिपाकर कांग्रेस उन्हें पुन: प्रतिष्ठित नहीं कर सकती। नि:संदेह इंदिरा गांधी ने अपने जीवन में अनेक महान कार्य किए थे और राष्ट्रवाद के प्रति उनके समर्पण ने देश को गौरवान्वित किया था, किंतु उनकी भी अपनी सीमाएं थीं। वह राजनीति से नैतिकता के निष्कासन की जिम्मेदार थीं और उन्होंने नैतिकता और अनैतिकता की महीन रेखा को भी मिटा दिया था। हम उन दिनों के कारनामों की अभी तक कीमत चुका रहे हैं। उनके पुत्र संजय गांधी ने संविधानेतर सत्ता स्थापित की थी और विपक्ष को कुचल दिया था। यही नहीं, उन्होंने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की अवमानना भी की थी और मनमाने फैसले सख्ती से लागू किए गए थे। यह भी दुखद है कि उनके आगे मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी झुक गया था। जो प्रणाली आपातकाल के दौरान पट्टी से उतर गई थी, वह अभी तक अपनी राह पर नहीं आ पाई। ऐसा होने का कारण है नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों को जवाबदेही से छूट। शाह आयोग ने जिन लोगों को दोषी पाया था उनमें से कोई भी दंडित नहीं किया जा सका। सच्चाई यह है कि जो आपातकाल के दौरान ज्यादतियों में लिप्त रहे थे, उन्हें न केवल बारी से पहले पदोन्नत किया गया, बल्कि उनकी महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति भी की गई। शासकों को शाह आयोग के इस परामर्श पर ध्यान देना चाहिए कि यदि नौकरशाही के क्रियाकलाप के बारे में सरकार के दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जाए तो कुछ उपयोगी मकसद पूरा हो सकेगा। सरकार का बुनियादी दायित्व उन अधिकारियों को संरक्षण की गारंटी देना है जो उस आचरण संहिता से डिगने से इनकार कर देते हैं, जिसे अधिकारियों द्वारा ही नहीं, राजनेताओं द्वारा भी परिचालित किया जाना चाहिए। मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला गुम हुए रिकार्डो पर मौन रहे हैं। वह नेहरू-गांधी वंश के करीब हैं। फिर भी उन्होंने सूचना अधिकार की रूपरेखा को विस्तार देने का सराहनीय कार्य किया है। आपातकाल लागू करने की उद्घोषणा के बारे में राष्ट्रपति से उस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहने से पूर्व कैबिनेट से भी सलाह नहीं ली गई थी। अगले दिन कैबिनेट की बैठक में इसकी पुष्टि की गई। यह बात समझ आती है कि गृह मंत्रालय इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत तौर पर दोष दिए बिना इस बारे में स्पष्टीकरण नहीं दे सकता। वह तो न्यायालयों को भी बंद कर देना चाहती थीं, परंतु उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें आश्वस्त कर दिया गया था कि जज उनके अनुसार ही चलेंगे। ऐसा ही हुआ भी क्योंकि शायद ही कोई उच्च न्यायालय हो जिसने आपातकाल के दौरान कोई विपरीत निर्णय दिया हो। सर्वोच्च न्यायालय तक ने भी आपातकाल लागू किए जाने को 5-1 से सही ठहराया था। सत्य है कि यह सब अब इतिहास है, किंतु कांग्रेस इसका पुनर्लेखन तो नहीं कर सकती। सरकार और उसके नेताओं की असफलता को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। आने वाली पीढि़यों को यह जानना ही चाहिए कि कहां और कैसे देश के संस्थानों की स्वतंत्रता जोखिम में डाली गई थी और लोकतंत्र पटरी से उतरा था। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण